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वृ॒ष्टिद्या॑वा री॒त्या॑पे॒षस्पती॒ दानु॑मत्याः। बृ॒हन्तं॒ गर्त॑माशाते ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vṛṣṭidyāvā rītyāpeṣas patī dānumatyāḥ | bṛhantaṁ gartam āśāte ||

पद पाठ

वृ॒ष्टिऽद्या॑वा री॒तिऽआ॑पा। इ॒षः। पती॒ इति॑। दानु॑ऽमत्याः। बृ॒हन्त॑म्। गर्त॑म्। आ॒शा॒ते॒ इति॑ ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:68» मन्त्र:5 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:6» मन्त्र:5 | मण्डल:5» अनुवाक:5» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्या जान क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (वृष्टिद्यावा) वृष्टि और अन्तरिक्ष के कारण (रीत्यापा) रीति और जल जिनके सम्बन्ध में वह (इषः) अन्न आदि के (पती) पालक वायु और विद्युदग्नि (दानुमत्याः) बहुत दान विद्यमान जिसमें उस पृथिवी के मध्य में (बृहन्तम्) बड़े (गर्त्तम्) गृह को (आशाते) व्याप्त होते हैं, उन दोनों को आप लोग जान के उपकार करो ॥५॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य वृष्टि आदि में कारण सूर्य्य, वायु और बिजुली आदि को जानें तो उस कार्य्य को कर सकें ॥५॥ इस सूक्त में मित्र श्रेष्ठ और विद्वान् के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह अड़सठवाँ सूक्त और छठवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः किं विज्ञाय किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! वृष्टिद्यावा रीत्यापेषस्पती वायुविद्युतौ दानुमत्या बृहन्तं गर्त्तमाशाते तौ यूयं विज्ञायोपकुरुत ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वृष्टिद्यावा) वृष्टिश्च द्यौश्च याभ्यां तौ (रीत्यापा) रीतिश्चापश्च ययोस्तौ (इषः) अन्नादेः (पती) पालकौ (दानुमत्याः) बहूनि दानवो दानानि विद्यन्ते यस्यां पृथिव्यां तस्या मध्ये (बृहन्तम्) महान्तम् (गर्त्तम्) गृहम् (आशाते) व्याप्नुतः ॥५॥
भावार्थभाषाः - यदि मनुष्या वृष्ट्यादिनिमित्तानि सूर्य्यवायुविद्युदादीनि जानीयुस्तर्हि तत्तत्कार्य्यं कर्त्तुं शक्नुयुरिति ॥५॥ अत्र मित्रावरुणविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्यष्टषष्टितमं सूक्तं षष्ठो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे वृष्टी इत्यादीचे कारण सूर्य, वायू व विद्युत इत्यादींना जाणतात ती त्यांच्यासंबंधी कार्य करू शकतात. ॥ ५ ॥